रविवार, 23 नवंबर 2025

कोकड़ों को हंसने दो

कोकड़ों को हंसने दो

गली के बीचो–बीच वो पीपल रहा —
बूढ़ा, थका, खखारता हुआ…

और बस खामोशी में गालियाँ बुदबुदाता रहता हो।

कब उगा, कब फैले लिया— कोई हिसाब नहीं।
बस खड़ा था — जिद की तरह, लानत की तरह, सच्चाई की तरह।
शाखें फैलाकर उसने आसमान का बड़ा हिस्सा हथिया लिया था,
जैसे कह रहा हो —
“ऊपर सब मेरा है, नीचे तुम लोग जैसे चाहो जियो… मुझे क्या।”

ऊपर उसकी टहनियों पर सफ़ेद कोकड़ों का कब्ज़ा था।
नीचे मंदिर… और बीच में हम बच्चे —
जिन्हें दुनिया अभी खेल लगती थी
पर हार–जीत का ज़हर उसी मैदान में उतरना था।

कोकड़े हर सुबह किच–किचाते,
और अपनी सीलन–भरी बीट बरसाते।
सफेदपोश थे — सफेद बीट,, बस काली थी, तो
तेवर … मंशा भी।

हम पाटे के आस–पास चक्कर लगाते,
मानो खुश होकर, बेवकूफ़ी में,
ज़िंदगी की पहली दौड़ की रिहर्सल कर रहे हों।

उसी बीच कभी–कभार
काले गिद्ध उन टहनियों पर सुस्ताते पड़े रहते —
इतने विशाल कि दोपहर का सूरज भी ढाप जाए।

एक फीकी दोपहरी
खेल में पहली बार राजनीति ने दस्तक दी।
खस्ते के बँटवारे को लेकर शुरू हुई तकरार
खेल से कुछ आगे निकलकर संग्राम बन गयी।

गुड्डा उम्र में बड़ा था, पर हाथ बराबर के।
शुरू में लगा लड़ाई बराबरी की है,
फिर अचानक वो मेरी छाती पर सवार था —
और मैं ज़मीन पर पिन होकर पड़ा
चारों तरफ़ चीखें,
बीच में परास्त मैं —क्या देखा 
सिर के ऊपर वही कोकड़े आज हंस रहे थे।
हाँ, हँस ही रहे थे।
जैसे उन्हें पहले से मालूम हो
कौन हारेगा,,मेरे जानने वाले ये कोकड़े ऐसे हंस रहे थे
काले गिद्ध बस अनजान थे 

पुजारी आया, लड़ाई छुड़वाई।
गुड्डा तो जीत गया।
और मैं नॉकआउट —
धूल में, भीड़ के सामने, अपमान में डूबा।

मगर शायद मेरी पहली जीत थी।

उसी दिन सीखा —
हार को निगलना भी एक फ़न है।
उस दिन सीना ज़मीन से चिपका था,
पर आत्मा उठकर किसी को बेआवाज़ वादा कर गयी।

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अब समझ आता है —
हर आदमी की ज़िंदगी में एक पीपल होता है।
और उसकी सबसे ऊँची टहनी पर
 कोकड़े बैठे ही होते हैं —
चेहरे सफ़ेद, इरादे काले,
खामोशी में मुस्कराते,
आपकी पहली चूक का इंतज़ार करते हुए।

जैसे ही आप फिसले —
वे खिलखिलाएँगे,
बीट बरसाएँगे,
और आपकी जीत के मंदिर को दागदार करने की पूरी कोशिश करेंगे।

पर आज का फ़र्क ये है —
मैं उनसे डर कर भागता नहीं,
और उन्हें खुश करने की ज़रूरत भी नहीं समझता।
लड़ता भी नहीं ज़्यादा —
बस बेपरवाह रहकर उन्हें औक़ात याद दिला देता हूँ।

क्योंकि आदमी तब जीतना शुरू करता है
जब अपमान को भी अपना ईंधन बना लेता है।

कोकड़ों को हंसने दो,,

अनुभव

मंगलवार, 10 जून 2025

दुर्लभ ,,, श्वेत सिल्ही बतख,,

प्रकृति में जीवों का रंग चयन अनायास ही नहीं होता,,,सात रंगों में से जीव अपने परिवेश में घुलमिल जाने ,, प्रजनन प्रक्रिया में मादा को लुभाने और अपने आहार के रंगों में रंग जाने के खातिर ,,जो त्वचा में पिगमेंट बनाते है उस मिलेनिन से ही ये तय होता है वो जीव कैसा दिखेगा,,,खास कर परिंदे तो रंगों की इस कूची का उपयोग अपने पंखों में विविधता से करते हैं,,हमारा बागीचा और परिवेश इन इंद्रधनुषीय संयोजनों से चहकता रहता है,,
                                 इसी मिलेनिन पिगमेंट की व्याधि से कभी कभी कमाल भी होते है,,जैसे सफेद बाघ या काला तेंदुवा,,विज्ञान की भाषा में कहें तो ल्यूसिजम या फिर एल्बिनो,,, जहां हम इंसान अपनी प्रजाति में इस व्याधि के पीड़ितों को विसंगति के तौर पर देखते है वहीं किसी जानवर में मिल जाने पर इन्हें दुर्लभ कुदरती कारीगरी का नमूना मान कर बड़ा सम्मान दिया जाता है बार नवापारा के एक तालाब में एक ऐसी ही जंगली सिल्ही बतख दिखाई दी,, यानि लेसर विसलिंग डक,, ये नाम इस प्रजाति को मिला है इसकी तेज सिटी की आवाज से,,लगभग पूरे दक्षिण एशिया में पाई जाने वाली इन जंगली बतखों के चौकन्ने झुंड हमारे तालाबों नदियों पोखरों में पूरे साल जलीय पौधों और छोटे जीवों का लुत्फ लेते मिल जाएंगे,,,हल्के एवं गहरे भूरे ,, रंग की ये बतख जिसमें नर और मादा एक सी ही दिखती है ,,लेकिन उपर तस्वीर में दिखाई गई जोड़ी में एक बिलकुल सफेद रंग में है चोंच और आंखों के रंग को छोड़ कर,,माने ये एक ल्यूसिस्टिक बतख है,,जिसके दर्शन
 छत्तीसगढ़ के इस हिस्से में बहुत दुर्लभ है,,, देश के अन्य भूभागों में यदा कदा इनकी रिपोर्टिंग जरूर हुई है,, लेसर विसलिंग डक की ये जोड़ी आने वाले दिनों में बर्ड वाचर्स एवं पक्छी  वैज्ञानिकों को बार नवापारा आने को आकर्षित करते रहेगी,,

अनुभव शर्मा ,,तस्वीर एवं लेख





शनिवार, 31 मई 2025

वाल्मीकि थापर कूच कर लिए,,बंदे ने भारतीय जैव विविधता को नया स्वर दिया,, बाघ हो या फिर लाल गर्दन वाले गिद्ध ,,,उनकी गहन दृष्टि ने इस दुनिया को कुछ नए आयाम दिए ,,,,उनको पढ़ कर जो जस्बात उमड़ते थे वो प्रेमचन्द की कफ़न या रेणु की मांरे गए गुलफाम से जुदा नहीं थे,, आपके जाने पर जो  खाली पन भर आया है उसे क्या कहूं 

शख्स रुखसत हुआ ,,अजीब वास्ता था
मैयत के आंसु से,, दर्ख़तों को सिजता रहा

गुरुवार, 29 मई 2025

नंदडू या कमल ककड़ी जो,,,हमारे यहां ढेस के नाम से मशहूर है,,, यखनी का शाकाहारी कलेवर,,,कभी चखा था ,,पहलगांव की वादियों में ,,आज अपने बावर्चीखाने में उस चटखारे की कवायत हुई,,यखनी है, पारंपरिक पारसी मिट्टी के बर्तनों में बनाने वाली ग्रेवी,, जो मध्यकाल में रेशम मार्ग से होते हुए पीर पंजाल की डेग तक पहुंची,, दही पुदीने ,,सौंफ इलायची,,, और क्रेमलाइज्ड ऑनियन की नजाकत नफासत ,,ताजे तिरछे कटे नंदडु का ताल मेल ,,, छत्तीसगढ़ की कढ़ियों से कुछ जुदा मिजाज लिए हुए,,ये 

बुधवार, 28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल की शब्दावली में उनसे भेंट करना एक सरल, गहरी और कवित्वपूर्ण अनुभूति है। उनकी भाषा सहज है, मगर उसमें जीवन के गूढ़ सत्य छिपे होते हैं। यदि आप उनकी शैली में उनसे मिलने की कल्पना करें, तो शायद कुछ ऐसा होगा:  

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**"विनोद जी से भेंट**  

दरवाज़ा खुला था,  
मैंने अंदर झाँका—  
'आइए,' उन्होंने कहा,  
'बैठिए ज़मीन पर,  
कुर्सी तो है ही नहीं।'  

हाथ में चाय का प्याला,  
आँगन में धूप का टुकड़ा,  
बातें हो रही थीं  
किसी पेड़ के बारे में  
जो खिड़की से दिख रहा था।  

'क्या लिख रहे हैं अभी?' मैंने पूछा।  
उन्होंने काप पर लिखा हुआ एक शब्द दिखाया—  
'बारिश'  
फिर उसे काट दिया,  
'नहीं, यह नहीं,' वे बोले,  
'यह तो अभी होनी बाकी है।'  

चुप्पी में उनकी हँसी  
कमरे में गूँजी,  
जैसे कोई कविता  
अधूरी छोड़ दी गई हो  
ख़ुद ही अपने आप को याद दिलाने के लिए।"  

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विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं की तरह यह काल्पनिक भेंट सादगी में भी गहराई समेटे हुए है—जहाँ सामान्य चीज़ें असाधारण हो उठती हैं। उनकी कविताओं और उपन्यासों (जैसे *नौकर की कमीज़* या *दीवार में एक खिड़की रहती थी*) में यही भाष्य झलकता है।  

यदि आपको उनकी किसी खास रचना पर चर्चा करनी हो, तो बताइए!

सोमवार, 12 मई 2025

ji

इस दुनिया में आ ने के बाद क्या देखा मैने 
हमंम्मम,,
सुरज ,, चांद,,बादल ,, या डॉक्टर का चेहरा देखा मैने
कुछ भी याद नहीं,,बस मम्मी पापा का चेहरा देखा मैने

मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

शुक्ल जी

हाथी आगे निकलता जाता था,,हाथी की खाली जगह पीछे छूटती थी,,,कौतूहल ,, पाठक के रूप में ऐसा वाक्य विन्यास खलबला देती है,,, मायने खोजने की मशक्कत नहीं वो अपनी गहराइयों में बिंबों के साथ जम जाते हैं,,,शब्द बिंबों के साथ ऊंचाइयों तक चढ़ते है फिर इतनी गहराइयों पर उतार लाते हैं कि हर एक पन्ना पलटना एक नए अध्याय की शुरुवात लगता है,,ये है विनोद कुमार शुक्ल जी के सृजन का जादुई लोक,,जिससे हमारा परिचय भी वैसा ही जादुई था
                   2002 का यह वह दौर था जब  हिंदी साहित्य से जुड़ाव एक विषय से