मंगलवार, 10 जून 2025

दुर्लभ ,,, श्वेत सिल्ही बतख,,

प्रकृति में जीवों का रंग चयन अनायास ही नहीं होता,,,सात रंगों में से जीव अपने परिवेश में घुलमिल जाने ,, प्रजनन प्रक्रिया में मादा को लुभाने और अपने आहार के रंगों में रंग जाने के खातिर ,,जो त्वचा में पिगमेंट बनाते है उस मिलेनिन से ही ये तय होता है वो जीव कैसा दिखेगा,,,खास कर परिंदे तो रंगों की इस कूची का उपयोग अपने पंखों में विविधता से करते हैं,,हमारा बागीचा और परिवेश इन इंद्रधनुषीय संयोजनों से चहकता रहता है,,
                                 इसी मिलेनिन पिगमेंट की व्याधि से कभी कभी कमाल भी होते है,,जैसे सफेद बाघ या काला तेंदुवा,,विज्ञान की भाषा में कहें तो ल्यूसिजम या फिर एल्बिनो,,, जहां हम इंसान अपनी प्रजाति में इस व्याधि के पीड़ितों को विसंगति के तौर पर देखते है वहीं किसी जानवर में मिल जाने पर इन्हें दुर्लभ कुदरती कारीगरी का नमूना मान कर बड़ा सम्मान दिया जाता है बार नवापारा के एक तालाब में एक ऐसी ही जंगली सिल्ही बतख दिखाई दी,, यानि लेसर विसलिंग डक,, ये नाम इस प्रजाति को मिला है इसकी तेज सिटी की आवाज से,,लगभग पूरे दक्षिण एशिया में पाई जाने वाली इन जंगली बतखों के चौकन्ने झुंड हमारे तालाबों नदियों पोखरों में पूरे साल जलीय पौधों और छोटे जीवों का लुत्फ लेते मिल जाएंगे,,,हल्के एवं गहरे भूरे ,, रंग की ये बतख जिसमें नर और मादा एक सी ही दिखती है ,,लेकिन उपर तस्वीर में दिखाई गई जोड़ी में एक बिलकुल सफेद रंग में है चोंच और आंखों के रंग को छोड़ कर,,माने ये एक ल्यूसिस्टिक बतख है,,जिसके दर्शन
 छत्तीसगढ़ के इस हिस्से में बहुत दुर्लभ है,,, देश के अन्य भूभागों में यदा कदा इनकी रिपोर्टिंग जरूर हुई है,, लेसर विसलिंग डक की ये जोड़ी आने वाले दिनों में बर्ड वाचर्स एवं पक्छी  वैज्ञानिकों को बार नवापारा आने को आकर्षित करते रहेगी,,

अनुभव शर्मा ,,तस्वीर एवं लेख





शनिवार, 31 मई 2025

वाल्मीकि थापर कूच कर लिए,,बंदे ने भारतीय जैव विविधता को नया स्वर दिया,, बाघ हो या फिर लाल गर्दन वाले गिद्ध ,,,उनकी गहन दृष्टि ने इस दुनिया को कुछ नए आयाम दिए ,,,,उनको पढ़ कर जो जस्बात उमड़ते थे वो प्रेमचन्द की कफ़न या रेणु की मांरे गए गुलफाम से जुदा नहीं थे,, आपके जाने पर जो  खाली पन भर आया है उसे क्या कहूं 

शख्स रुखसत हुआ ,,अजीब वास्ता था
मैयत के आंसु से,, दर्ख़तों को सिजता रहा

गुरुवार, 29 मई 2025

नंदडू या कमल ककड़ी जो,,,हमारे यहां ढेस के नाम से मशहूर है,,, यखनी का शाकाहारी कलेवर,,,कभी चखा था ,,पहलगांव की वादियों में ,,आज अपने बावर्चीखाने में उस चटखारे की कवायत हुई,,यखनी है, पारंपरिक पारसी मिट्टी के बर्तनों में बनाने वाली ग्रेवी,, जो मध्यकाल में रेशम मार्ग से होते हुए पीर पंजाल की डेग तक पहुंची,, दही पुदीने ,,सौंफ इलायची,,, और क्रेमलाइज्ड ऑनियन की नजाकत नफासत ,,ताजे तिरछे कटे नंदडु का ताल मेल ,,, छत्तीसगढ़ की कढ़ियों से कुछ जुदा मिजाज लिए हुए,,ये 

बुधवार, 28 मई 2025

विनोद कुमार शुक्ल की शब्दावली में उनसे भेंट करना एक सरल, गहरी और कवित्वपूर्ण अनुभूति है। उनकी भाषा सहज है, मगर उसमें जीवन के गूढ़ सत्य छिपे होते हैं। यदि आप उनकी शैली में उनसे मिलने की कल्पना करें, तो शायद कुछ ऐसा होगा:  

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**"विनोद जी से भेंट**  

दरवाज़ा खुला था,  
मैंने अंदर झाँका—  
'आइए,' उन्होंने कहा,  
'बैठिए ज़मीन पर,  
कुर्सी तो है ही नहीं।'  

हाथ में चाय का प्याला,  
आँगन में धूप का टुकड़ा,  
बातें हो रही थीं  
किसी पेड़ के बारे में  
जो खिड़की से दिख रहा था।  

'क्या लिख रहे हैं अभी?' मैंने पूछा।  
उन्होंने काप पर लिखा हुआ एक शब्द दिखाया—  
'बारिश'  
फिर उसे काट दिया,  
'नहीं, यह नहीं,' वे बोले,  
'यह तो अभी होनी बाकी है।'  

चुप्पी में उनकी हँसी  
कमरे में गूँजी,  
जैसे कोई कविता  
अधूरी छोड़ दी गई हो  
ख़ुद ही अपने आप को याद दिलाने के लिए।"  

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विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं की तरह यह काल्पनिक भेंट सादगी में भी गहराई समेटे हुए है—जहाँ सामान्य चीज़ें असाधारण हो उठती हैं। उनकी कविताओं और उपन्यासों (जैसे *नौकर की कमीज़* या *दीवार में एक खिड़की रहती थी*) में यही भाष्य झलकता है।  

यदि आपको उनकी किसी खास रचना पर चर्चा करनी हो, तो बताइए!

सोमवार, 12 मई 2025

ji

इस दुनिया में आ ने के बाद क्या देखा मैने 
हमंम्मम,,
सुरज ,, चांद,,बादल ,, या डॉक्टर का चेहरा देखा मैने
कुछ भी याद नहीं,,बस मम्मी पापा का चेहरा देखा मैने

मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

शुक्ल जी

हाथी आगे निकलता जाता था,,हाथी की खाली जगह पीछे छूटती थी,,,कौतूहल ,, पाठक के रूप में ऐसा वाक्य विन्यास खलबला देती है,,, मायने खोजने की मशक्कत नहीं वो अपनी गहराइयों में बिंबों के साथ जम जाते हैं,,,शब्द बिंबों के साथ ऊंचाइयों तक चढ़ते है फिर इतनी गहराइयों पर उतार लाते हैं कि हर एक पन्ना पलटना एक नए अध्याय की शुरुवात लगता है,,ये है विनोद कुमार शुक्ल जी के सृजन का जादुई लोक,,जिससे हमारा परिचय भी वैसा ही जादुई था
                   2002 का यह वह दौर था जब  हिंदी साहित्य से जुड़ाव एक विषय से 

गुरुवार, 20 मार्च 2025

मेरी कविता

एहसासों की पंक्तियां
भावनाओं के छंद
नोंकझोंक के अलंकार
खामोशी के स्वर
खुशियों के बिम्ब 
दुखों का रस
तुम्हारी आंखों में 
रचती है मेरी कविता
जिस भाव पे मै विभोर रहता हु