विनोद कुमार शुक्ल की शब्दावली में उनसे भेंट करना एक सरल, गहरी और कवित्वपूर्ण अनुभूति है। उनकी भाषा सहज है, मगर उसमें जीवन के गूढ़ सत्य छिपे होते हैं। यदि आप उनकी शैली में उनसे मिलने की कल्पना करें, तो शायद कुछ ऐसा होगा:
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**"विनोद जी से भेंट**
दरवाज़ा खुला था,
मैंने अंदर झाँका—
'आइए,' उन्होंने कहा,
'बैठिए ज़मीन पर,
कुर्सी तो है ही नहीं।'
हाथ में चाय का प्याला,
आँगन में धूप का टुकड़ा,
बातें हो रही थीं
किसी पेड़ के बारे में
जो खिड़की से दिख रहा था।
'क्या लिख रहे हैं अभी?' मैंने पूछा।
उन्होंने काप पर लिखा हुआ एक शब्द दिखाया—
'बारिश'
फिर उसे काट दिया,
'नहीं, यह नहीं,' वे बोले,
'यह तो अभी होनी बाकी है।'
चुप्पी में उनकी हँसी
कमरे में गूँजी,
जैसे कोई कविता
अधूरी छोड़ दी गई हो
ख़ुद ही अपने आप को याद दिलाने के लिए।"
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विनोद कुमार शुक्ल की रचनाओं की तरह यह काल्पनिक भेंट सादगी में भी गहराई समेटे हुए है—जहाँ सामान्य चीज़ें असाधारण हो उठती हैं। उनकी कविताओं और उपन्यासों (जैसे *नौकर की कमीज़* या *दीवार में एक खिड़की रहती थी*) में यही भाष्य झलकता है।
यदि आपको उनकी किसी खास रचना पर चर्चा करनी हो, तो बताइए!
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