हाथी आगे निकलता जाता था,,हाथी की खाली जगह पीछे छूटती थी,,,कौतूहल ,, पाठक के रूप में ऐसा वाक्य विन्यास खलबला देती है,,, मायने खोजने की मशक्कत नहीं वो अपनी गहराइयों में बिंबों के साथ जम जाते हैं,,,शब्द बिंबों के साथ ऊंचाइयों तक चढ़ते है फिर इतनी गहराइयों पर उतार लाते हैं कि हर एक पन्ना पलटना एक नए अध्याय की शुरुवात लगता है,,ये है विनोद कुमार शुक्ल जी के सृजन का जादुई लोक,,जिससे हमारा परिचय भी वैसा ही जादुई था
2002 का यह वह दौर था जब हिंदी साहित्य से जुड़ाव एक विषय से
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