दंड का अरण्य ,,, बस्तर
दंड भोगते उस अरण्य में ,,
फिर गरजे बारूदी मेघ
रक्त सिक्त वो गीली माटी
जले मांस सी ममहा गई
किसी क्रान्ति की भ्रान्ति में
माओ के नारे टर्राते
छिपे टोड इक इक कर उफ़्ले,,
साल सगोंन तनो पे लपलपाती
जिव्हा विकास की
लार टपकाती,,ठिठक गई
सभ्यता का इंद्रधनुष बन कर
लटक गई,, कोने में,
वो खेतो में बीज छिड़कता ,,
अधनंगा बन्दर सोंचता रहा
जाने कैसी फ़स्ल उगेगी
किसकी कितनी भूख मिटेगी ,
ऐसे अनबुझे से उत्तर खोजता रहा,,,
अनुभव
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