कोकड़ों को हंसने दो
गली के बीचो–बीच वो पीपल रहा —
बूढ़ा, थका, खखारता हुआ…
और बस खामोशी में गालियाँ बुदबुदाता रहता हो।
कब उगा, कब फैले लिया— कोई हिसाब नहीं।
बस खड़ा था — जिद की तरह, लानत की तरह, सच्चाई की तरह।
शाखें फैलाकर उसने आसमान का बड़ा हिस्सा हथिया लिया था,
जैसे कह रहा हो —
“ऊपर सब मेरा है, नीचे तुम लोग जैसे चाहो जियो… मुझे क्या।”
ऊपर उसकी टहनियों पर सफ़ेद कोकड़ों का कब्ज़ा था।
नीचे मंदिर… और बीच में हम बच्चे —
जिन्हें दुनिया अभी खेल लगती थी
पर हार–जीत का ज़हर उसी मैदान में उतरना था।
कोकड़े हर सुबह किच–किचाते,
और अपनी सीलन–भरी बीट बरसाते।
सफेदपोश थे — सफेद बीट,, बस काली थी, तो
तेवर … मंशा भी।
हम पाटे के आस–पास चक्कर लगाते,
मानो खुश होकर, बेवकूफ़ी में,
ज़िंदगी की पहली दौड़ की रिहर्सल कर रहे हों।
उसी बीच कभी–कभार
काले गिद्ध उन टहनियों पर सुस्ताते पड़े रहते —
इतने विशाल कि दोपहर का सूरज भी ढाप जाए।
एक फीकी दोपहरी
खेल में पहली बार राजनीति ने दस्तक दी।
खस्ते के बँटवारे को लेकर शुरू हुई तकरार
खेल से कुछ आगे निकलकर संग्राम बन गयी।
गुड्डा उम्र में बड़ा था, पर हाथ बराबर के।
शुरू में लगा लड़ाई बराबरी की है,
फिर अचानक वो मेरी छाती पर सवार था —
और मैं ज़मीन पर पिन होकर पड़ा
चारों तरफ़ चीखें,
बीच में परास्त मैं —क्या देखा
सिर के ऊपर वही कोकड़े आज हंस रहे थे।
हाँ, हँस ही रहे थे।
जैसे उन्हें पहले से मालूम हो
कौन हारेगा,,मेरे जानने वाले ये कोकड़े ऐसे हंस रहे थे
काले गिद्ध बस अनजान थे
पुजारी आया, लड़ाई छुड़वाई।
गुड्डा तो जीत गया।
और मैं नॉकआउट —
धूल में, भीड़ के सामने, अपमान में डूबा।
मगर शायद मेरी पहली जीत थी।
उसी दिन सीखा —
हार को निगलना भी एक फ़न है।
उस दिन सीना ज़मीन से चिपका था,
पर आत्मा उठकर किसी को बेआवाज़ वादा कर गयी।
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अब समझ आता है —
हर आदमी की ज़िंदगी में एक पीपल होता है।
और उसकी सबसे ऊँची टहनी पर
कोकड़े बैठे ही होते हैं —
चेहरे सफ़ेद, इरादे काले,
खामोशी में मुस्कराते,
आपकी पहली चूक का इंतज़ार करते हुए।
जैसे ही आप फिसले —
वे खिलखिलाएँगे,
बीट बरसाएँगे,
और आपकी जीत के मंदिर को दागदार करने की पूरी कोशिश करेंगे।
पर आज का फ़र्क ये है —
मैं उनसे डर कर भागता नहीं,
और उन्हें खुश करने की ज़रूरत भी नहीं समझता।
लड़ता भी नहीं ज़्यादा —
बस बेपरवाह रहकर उन्हें औक़ात याद दिला देता हूँ।
क्योंकि आदमी तब जीतना शुरू करता है
जब अपमान को भी अपना ईंधन बना लेता है।
कोकड़ों को हंसने दो,,
अनुभव